दशकों के आधार पर कविताओं और कवियों की पहचान का चलन शुरू करना एक तरह से अज्ञेय द्वारा नई कविता-प्रयोगवादी कविता जैसी पहचानों का एक 'उदारीकृत' पुनरुत्थान है. उदारीकृत इसलिए, क्योंकि वैश्वीकरण के दौर में साम्राज्यवाद नई और प्रयोगशील रचनाधर्मिता से भी नफरत करता है और इसलिए उसकी सांस्कृतिक चेतना को एक राजनीति-निरपेक्ष (या राजनीतिक रूप से 'सेक्युलर') वर्गीकरण चाहिए. 'विचारधाराओं के अंत', 'इतिहास के अंत' और 'साम्यवाद के पतन' के बाद तो बस तारीखें ही रह जानी थीं, इतिहास नहीं. इसलिए वादों के संदर्भ में कवियों और कविताओं की पहचान भी मुमकिन नहीं रही क्योंकि उससे विचारधारात्मक बू आती है इसलिए अब हिंदी पर दशकीय चेतना के आरोपण का दौर है. लेकिन मजेदार बात तो ये है कि दशक जाकर भी नहीं जाते और इस तरह नब्बे का दशक करीब डेढ-दो दशकों तक पसर जाता है (यह बीमारी हॉब्सबॉम दे गए, जिन्होंने लंबी उन्नीसवीं सदी की परिकल्पना की थी). इसके पीछे की राजनीति के बारे में विस्तार से कवि और सांस्कृतिक कार्यकर्ता रंजीत वर्मा.
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