यौन पिपासु होता समाज
दोष किसे दें? उस बाजार को जो सबको उत्पाद बना देने पर उतारू है, चाहे वह
वस्तु हो अथवा देह, या फिर उस जीवनशैली को जो अस्तित्ववाद व भौतिकवाद को
ही अंतिम सत्य मान बेलाग और बेलगाम जीवन जीने पर उतारू है। जो आठ से
अस्सी साल तक भी अपनी यौन पिपासा की पूर्ति के समय को कम मानता है और
कपड़ों व साथियों के बीच के फर्क को तार-तार कर चुका है या फिर उस
पुरुषवादी मानसिकता को जो औरत को अपनी दासी, गुलाम या चेरी समझ गुडिय़ा
की भांति खेलकर तोड़ देने की मानसिकता से ग्रस्त है या फिर वह नारीवाद जो
सदियों की जंजीरों को तोड़ आजाद होने को तड़प रही है किन्तु अपनी आजादी
की अभिव्यक्ति यौन पूर्ति व उच्छ्रंखलता के माध्यम से ही अभिव्यक्त करने
को अभिशप्त है।
पशुता की ओर बढ़ता समाज जानवर होने पर उतारु है। हम मानवता के नये
पड़ावों यथा बढ़ती उम्र, घटता जीवन संघर्ष, यौन सम्मिलन के बढ़ते अवसर,
टूटती वर्जनाओं और बढ़ती यौन आवश्यकताओं व आक्रामकताओं के बीच अपने
सामाजिक सम्बन्धों व मौलिक आवश्यकताओं के बीच अन्तर्संम्बन्धों को
पुनर्परिभाषित ही नहीं कर पा रहे हैं। विविध आर्थिक, सामाजिक व मानसिक
स्तरों का समाज, जिसे जबरदस्ती बाजार द्वारा 'ग्लोबलÓ बनाने की जिद की जा
रही है, 'आत्मघातीÓ हो चुका है। बुरी तरह हावी बाजार हमारी हर भावना,
संवेदना व नैसर्गिक जैविक आवश्यकताओं का उद्दीपन कर हमें उत्तेजित कर रहा
है। हम फिल्में, रेडियो, टीवी, इंटरनेट, समाचार पत्र-पत्रिकाओं व साहित्य
सभी प्रसार-माध्यमों के माध्यम से जकड़े जा चुके हैं और हमारी सोच को,
संस्कारों को, नैतिकता को और सामाजिकता की भावना को कुंठित कर दिया गया
है।
निश्चित रूप से यह विध्वंस का समय है। सामाजिक संस्थाओं के विध्वंस
का, सामाजिकता के विध्वंस का और व्यवस्था के विध्वंस का, मगर क्या
पुनर्निर्माण की प्रक्रिया भी शुरू हो गई है? शायद नहीं या बहुत कम और
बहुत धीमी। अभी तो बाजार हावी है और अपने समाप्त होने से पूर्व की
प्रक्रिया में फिर से हावी होने की कोशिश में है। यह तो संभव ही नहीं है
कि यह प्रक्रिया जल्दी से समाप्त हो जाये, विशेषकर विकासशील देशों में।
ऐसे में एक बड़ी आबादी जो अपने सांस्कृतिक मूल्यों व विरासत के साथ जी
रही है उसे बदलाव व परिवर्तन की प्रक्रिया के नाम पर बाजार के इस पशुवत
आचरण का शिकार होना पड़ेगा।
अगर भारत के संदर्भ में बात करें तो उच्चतम न्यायालय की लाख फटकार और
आदेशों के बावजूद सरकार 'पोर्नाेग्राफी वेबसाइटोंÓ पर प्रतिबंध लगाने की
इच्छुक नहीं है और विपक्षी दलों की चुप्पी भी इस कृत्य को अघोषित समर्थन
दे रही है। नशे के जाल में पूरा देश मानों जकड़ा हुआ है। पूरा देश यूरोप,
अफ्रीका व अमेरिकी, एशियाई, सभी देशों के जीवित/मरे लोगों की नई-पुरानी
यौन पिपासों के श्रव्य-दृश्य आनन्द से दो-चार हैं या दो-चार किया जा रहा
है और जानवर होने पर उतारू हैं/या उतारु बनाये जा रहे हैं। अब अवैध व
गैरकानूनी कार्यों को जब सरकारें ही परोक्ष समर्थन दे रही हैं तो समाज की
क्या बिसात। इस सरकार प्रायोजित 'रूपान्तरÓ की जद में उच्चतम न्यायालय के
न्यायाधीश भी आ गये हैं, तो तहलका के तरुण तेजपाल भी, आसाराम जैसे बाबा
भी और विभिन्न राजनीतिक दलों के अनेकोनेक नेता भी और नौकरशाह तो पुराने
खिलाड़ी हैं ही। अब आम आदमी की मां-बहन-बेटी बलात्कार की शिकार होती रहे
तो इन्हें क्या फर्क पड़ता है, ये तो सम्बन्धों से ऊपर उठ चुके लोग हैं
'बहुगामीÓ प्रवृत्ति के बंदे। इन्हें प्लूटो का 'पत्नियों का साम्यवादÓ
पसन्द है और बच्चों को 'कम्यूनÓ में भेज देने पर उतारु हैं। यौन
क्षमतावर्धक दवाईयों व वस्तुओं का सेवन कर ये दिन-दहाड़े ताल ठोकने वाले
'महामानवÓ नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में परिवार संस्था व समाज की
वॉट लगाने के लिए तैयार बैठे हैं। अब यह समझ चुके हैं कि 'पोर्नोग्राफीÓ
तो शायद सभी को पसन्द है, सोनिया जी को भी, राहुल जी को भी, सुषमा जी को
भी, जेटली जी को भी और शायद मोदी जी को भी, सारे यूपीए व एनडीए के नेताओं
को भी! नहीं है तो फिर चल ही क्यों रही है?
Anuj Agrawal, Editor Dialogue India
www.dialogueindia.in
Mob. 9811424443
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